ऐसा नहीं है कि स्ट्रगल अब खत्म हो गया है..
समस्याएं ही शायद अपनी दोस्त बन गयी हैं..
वो जो फिक्र सी थी जो हरदम लगी रहती थी..
अब जब वो फिक्र नहीं होती तो अकेलापन सा लगता है..
वो सारे सवाल अब भी वही हैं..
जिनके जवाब कॉलेज से निकलते ही ढूंढने लगे थे..
लेकिन अब जवाब ढूंढने से ज्यादा कम्फोर्टेबल
उन्हीं सवालों के साथ होने लगे हैं..
ये उम्र का वो दौर है
जब दाढ़ी और बाल से कोई मतलब नही
जब शर्ट पेंट मैचिंग है या नहीं फर्क नहीं पड़ता..
जब अपने ऊपर कुछ भी खर्च बोझ सा लगने लगता है..
और तो और जिस सलून से बाल कटाते आये थे..
अब वो भी मंहगा लगने लगा है..
अपने सपनों का अपनी हकीकत से कम्प्रोमाइज करा दिया है..
अब वो छोटी खुशिया भी बड़ी लगने लगी है
खिलाड़ी हम अब भी वही हैं..
बस बाहर जाती गेंदों पर बल्ला लगाना छोड़ दिया है.
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