शायद



Shivangi



शायद

हालत और तबियत की ज़िक्र कोई नहीं करता, 
माँ से ज्यादा फ़िक्र कोई नहीं करता। 

माना ये तालाबंद अब अपने अंतिम चरण पर है, पर मेरी माँ की फ़िक्र अब भी पहले चरण पर ही है । आज भी मेरे घर में मेरे और मेरे भाई के लिये वही कर्फ्यू जारी है। हालांकि मैं 21 साल की हूँ पर मेरी माँ को मेरी हरकतों पे बिल्कुल भरोसा नहीं है। उन्हें अभी भी लगता है कि मैं पड़ोस की 5 साल की रीमा की तरह मुह मे उंगलिया डालकर कोरोना को न्योता दूँगी । आप को हँसी आ रही होगी पढ़कर, है ना? 

पर कब तक माँ मुझे बाहरी दुनिया से बचायेगी? उनका काम तो दरसल वो 9 महीनों तक का ही था। उसके बाद की सारी जंग तो मुझे खुद ही लड़नी थी, फिर चाहे वो कोरोना से हो या मुखौटों वाले इंसानों से।

जैसे हर लोहा कभी ना कभी पिघलता है , तीन महिने के बाद माँ ने मुझे बाहर निकलने की परवान्गी दे दी। काम तो राशन लाने का ही था , पर मैं फ़ूले नहीं समा रही थी | अपनी 21 साल की ज़िन्दगी मे मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि मैं राशन खरीदने जेसे काम के लिए भी कभी इतनी उत्सुक हो जाऊँगी | 

आज तीन माह बाद अलमारी से गुफ़्तगू की। मेरे जीन्स भी मुझे देख कर खिलखिला उठे | आज चप्पलों को नज़र से दूर कर, जूतों से फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाया । आज आँखों को उनकी बचपन की सहेली काजल से मिलाया | सब कुछ काफ़ी नया नया सा लग रहा था | 

माँ ने हाथ में थाली, सामान की लिस्ट , मास्क और कुछ पैसे थमा दिए और जैसे हर सामान के साथ चेतावनी और इस्तेमाल का निर्देश दिया जाता है, वैसे ही मुझे तरह तरह की चेतावनी दी गयी | "घर से दुकान और दुकान से घर" यह मुझे गणित के पहाड़ों की तरह रटाया गया | 
वैसे तो मेरे दोस्तों की राय में मेरी चलने की गती धीमी है पर अगर आज मेरे दोस्त साथ होते तो ज़रूर कहते कि, "बहन! धीमे चल ले! कोई ट्रेन नहीं छूटी जा रही है" । चार माले की सीढ़ियाँ आज आजादी की सीढ़ियों से कम नहीं लग रही थीं। अखिरकार मैं बाहर थी, हवा का वो पहला झोंका मेरे बाल के सिलवटों में जा के खो सा गया | मेरी खुशी मानो पिंजरे से आज़ाद हुए किसी पंछी की तरह थी, बस उड़ते रहना था | 

मैंने गाडी़ जल्दी से चालू की और दुकान की तरफ़ चल पडी़। इतने सारे चेहरे देख कर कुछ अलग सा महसूस हो रहा था| आज से पहले अनजान चेहरों को देख कर इतनी खुशी नहीं हुई थी । एक सोच की सुई अचानक से मुझे चुभी और में सोचने लगी कि शायद यह महामारी की तकलीफ़ों ने हम सब को कहीं ना कहीं एक अदृश्य डोरी से बान्ध लिया है , शायद। 
शायद इस महामारी ने हम इंसानों की एक दूसरे के प्रति दर्द समझने और बाँटने की क्षमता बढ़ा दी है, शायद। पहले इन्सान का पूरा चेहरा देखने के बाद भी उसके हालात का अंदाजा नहीं लगया जा सकता था, पर अब मास्क से ढके हुए उस चेहरो की आखें बहुत कुछ कह जाती हैं और शायद अब हम वो समझने लगे हैं,शायद।
शायद ये महामारी इतनी बुरी नहीं थी, शायद यह महामारी इन्सान और इंसानियत को वह पाठ पढ़ाने आयी हो जो एक अच्छे भविश्य की नीव हो...
शायद।


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Nishant

परखों तो कोई अपना नहीं, समझो तो कोई पराया नहीं

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