सुबह की शुरुआत आजकल माँ के उठाने या अलार्म के शोर से नहीं, चिड़ियों की चहचहाट और एक अजीब-सी फैली शांति से हो रही हैं। बहुत ही खूबसूरत दिन बीत रहे हैं पर इसके पीछे की वजह इतनी खूबसूरत नहीं हैं। दुनिया भर में फैलें कोरॉना के ख़ौफ़ ने वक़्त से तेज़ भागती ज़िंदगी को इतना धीमा कर दिया है कि अब एक-एक पल गिन कर उसे जिया जा सकता हैं।
तो हुआ यूँ है कि कोरॉना को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने देश में २१ दिन तक हर जगह लॉकडाउन करवा दिया। इसके सिवा और कोई चारा भी नहीं था। और इसका अंजाम ये हुआ कि हर स्कूल, कौलेज, दफ़्तर, दुकाने और सभी व्यपार बंद कर दिए गए तो लोगों को अपने घरों मे बंद होना पड़ा।
अब उनकी ज़िंदगी घर-परिवार के लोग, कुछ हद तक पड़ोसी और खिड़की से दिखती दुनिया तक ही सीमित हो गयी। इस छोटी-सी दुनिया में गुज़ारा करने के लिए लोगों ने छोटे-छोटे इंतज़ाम भी कर लिए थे। अपने मज़े के लिए कैरेम, लुडो, सापसिढ़ी, ताश और इंटेरनेट पेक और खाने के लिए बहुत सारा राशन जिसमें मैगी, चिप्स, बिस्किट आदि सभी पौष्टिक आहार की लिस्ट मे आने लगे। ये बात अलग है कि कुछ लोगों की बेवक़ूफ़ी ने उन्हें २१ दिन के लिए २१ महीनो का राशन भरने पर मजबूर कर दिया, जिससे कई जगह खाने के सामान की कमी होने लगी।
पर हर बार की तरह इंसानियत के फ़रिश्तों ने उसे भी सम्भाल लिया और कई जगह जरूरतमंदों को राशन पहुँचाने की सुविधा शुरू हो गयी। अब लोग अपने घरों में अपनी ज़रूरत के हिसाब से बंद हो गए थे और दुनिया देखने का एक ही ज़रिया था-खिड़की।
आजकल खिड़की से वो नज़ारे नहीं दिख रहे जो रोज़ दिखा करते थे। दूधवालों और अखबारवालो की “सबसे तेज़” रफ़्तार, गाड़ियों का शोर, लोगों की भागदौड़, दुकानो पर भीड़, स्कूलबस, बच्चों का खेलना, सब्ज़िमंडी के जमावड़े और पता नहीं क्या-क्या ऐसा था जो अब नहीं दिख रहे थे। अब लोगों का आपस में मिलना बिल्कुल बंद-सा हो गया है।
वो खिड़कियों और फोन से ही बातें कर रहे हैं। बच्चे माता-पिता की जान खा रहे हैं और माता-पिता इंटेरनेटवालों की। खिड़की से अब नज़ारे कुछ ऐसे दिख रहे हैं मानो दिन में भी रात के २ बज रहे हो। कुछ दुकानो के खुलने के वक़्त तय कर दिए गए हैं तो रोज़ सुबह ८ से ११ बजे मे दुकानो पर सामान लेने की भीड़ उमड़ आती है और कुछ लोग १ मीटर की दूरी, मुँह ढँकना, हाथो के स्पर्श का परहेज़ इन सारे नियमो का पालन कर रहे हैं।
बग़ल की कंस्ट्रक्शन वाली जगह पर सन्नाटा छा गया है। वहाँ के लोग अभी भी वही रह रहे हैं पर बेरोज़गार और परेशान। कभी-कभी उनके चेहरे और दिनचर्या में एक अलग ही ख़ुशी दिखाई देती है। वो लोग कभी-कभी आपस में ही क्रिकेट खेलते नज़र आते हैं। जनता को रोड पर मिलने से रोका गया हैं तो शाम को ५ बजे के आस-पास लोग बिल्डिंग और घरों की छत पर मिल रहे हैं।
बच्चे वही पर फूटबौल खेलते हैं और बड़े गप्पें मारते हुए ट्रेन की पटरियों, ख़ाली सड़कों को ताड़ते हैं, कुछ बुज़ुर्ग ताश की बाज़ियाँ खेलने छत पर दोपहर से ही अपनी जगह बना लेते हैं। खिड़कियों पर ज़्यादा कपड़े, गद्दे, चद्दर, देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता हैं कि शायद घर की साफ़-सफ़ाई भी ज़ोरों से शुरू हो गयी हैं। सब कुछ एकदम धीमा हो गया हैं।
सोशल मीडिया पर पता नहीं कितने #challenges #nominate #I lost to #until tomorrow #memes के अपने मज़े शुरू हैं। पर कुछ-कुछ चीज़ बिल्कुल नहीं बदली जैसे कि आसमान अभी अपने रंग उसी रफ़्तार में बदल रहा हैं, पंछियों की आवाज़ जो छुप गई थी किसी शोर के पीछे वो साफ़ और सुरीली सुनाई दे रही हैं, सूरज अब भी धीरे-धीरे ग़ुस्से में चढ़ता हैं और धीरे-धीरे ही सुकून की साँस लेते हुए ढलता जाता हैं, अब भी रास्ते में उसकी मुलाक़ात कभी-कभी चाँद से हो जाती हैं, अब भी चाँद बादलों के आगे-पीछे से हमें घूरता रहता हैं और उन तारों से उतनी ही दूरी बनाए रखता हैं।
तारे कुछ ज़्यादा दिखने लग गए हैं आजकल। घर पर अब भी कपड़े सुखाने का और चाय बनाने का काम मेरा ही है। अब भी नींद का वक़्त मच्छरों के डिनर टाइम के हिसाब से बदलता हैं और वक़्त होते हुए भी काम को टाला जा रहा हैं। जहाँ ये सब क़िस्से अपनी ही धुन में चल रहे हैं वहाँ कुछ कामों की रफ़्तार मानो आसमान छु रही हो जैसे कि पोलिस, सफ़ाई कर्मचारी, डाक्टर, नर्सेस और सारा मेडिकल स्टाफ़- दवाई बनने से दवाई लिखने, दवाई देने और हर तरह से हर तरह के मरीज़ का ध्यान रखनेवाले, इन सभी कामों को सम्भालनेवाले आपदा प्रबंधन के लोग ,अशासकीय संस्था गैर सरकारी संगठन के लोग और घर की औरतों की ज़िम्मेदारियाँ!
ये वो लोग हैं जो हमारे लिए काम कर रहे हैं और हमें इसका एहसास भी नहीं हैं। अलग-अलग तरीक़े से घर के बाहर और भीतर के हालतों को क़ाबू में करने और सुधारने की कोशिश बस जारी हैं।
पर जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं वैसे-वैसे लोगों की बेचैनी बढ़ती ही जा रही हैं। अब दुकान पर सामान लेने के बहाने या नीचे टहलने के बहाने लोग बाहर निकलना चाहते हैं। बच्चों को लेकर सामान लेने जाना, बाइक पर सिर्फ़ मटरगश्ती के लिए घुमना- सब ग़लत हैं पर शायद लोगों को परहेज़ करना आता ही नहीं या यु कहाँ जाय कि उन्होंने कभी इतना आराम करना, इतना धीमा चलना सिखा ही नहीं।
ये हालात ऐसे हैं जिनमे हमें आदत और ज़रूरत के बीच किसी एक को चुनना हैं। एक की वजह से शायद पुरा देश तबाह हो सकता हैं और दूसरे की वजह से शायद ये तबाही रोकी जा सकती हैं।
इंसान बहुत ही अजीब प्राणी हैं। वो ज़िंदगीभर आराम की तलाश में भागता रहेगा और जब आराम करने का मौक़ा मिला है तो बेचैन हो कर उसे गवा देगा।
और ये बातें सिर्फ़ उनकी की जा रही हैं जो लोग घर पर रह कर भी काम कर सकते हैं या २१ दिन काम ना कर के भी ज़िंदगी जी सकते हैं। उनके बारे मे तो सोचा ही नहीं जा रहा जो रोज़ काम ही सिर्फ़ इसीलिए करते हैं ताकी रोज़ पेट भर सके! उनकी हालत समझने की शायद हम जैसे लोग कोशिश भी नहीं कर सकते या अगर समझे भी तो खुदकी ही ज़िंदगी के ऐसे सवालों मे उलझे हैं जो सोचने पर बोहोत क़ीमती लगते हैं पर असल में देखा जाए तो क्या वाक़ई मे इतने क़ीमती हैं? तो जो बस में हैं उसपर तो काम किया जा सकता हैं नाह!
घर पर रह कर भी बहुत कुछ किया जा सकता हैं, बहुत कुछ सिखा जा सकता हैं। शायद ये बताने की ज़रूरत नहीं हैं कि आप क्या-क्या कर सकते हो, क्यूँकि उसके लिए पहले से ही YouTube और बाक़ी सोशल मिडिया हैं। और अगर फिर भी कुछ ना समझें तो घर पर खाना खाने के साथ-साथ खाना बनाने में भी अपनी माँ का हाथ बँटाओ।
अगर फिर भी ऐसा लग रहा हो कि आप ज़िंदगी में कुछ नहीं कर रहे तो कम-से-कम ये याद रखो कि इतिहास के पन्नो में एक बहुत बड़ी जंग के समय में हमारा बहुत बड़ा योगदान होगा। पर इस जंग का फ़ैसला होना बाक़ी है और वो हम पर टिका है!
तो कुछ दिनो के लिए ही सही पर खिड़की की दुनिया से भी प्यार करने की कोशिश करो और हर वो बात, हर वो कहानी, हर वो पल जो भागती ज़िंदगी में कही पीछे छूट जाते हैं, उन्हें जियो। खिड़की से जुड़ी इस दुनिया का नाम ही कुछ और रखने का मन कर रहा हैं- “उम्मीद” या “सपना”?
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